क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥31॥
क्षिप्रम्-शीघ्रः भवति–बन जाता है; धर्म-आत्मा-धर्म पर चलने वाला; शश्वत्-शान्तिम्-चिरस्थायी शान्ति; निगच्छति–प्राप्त करना; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन प्रतिजानीहि-निश्चयपूर्वक घोषित कर दो; न कभी नहीं; मे-मेरा; भक्त:-भक्त; प्रणश्यति–विनाश।
BG 9.31: वे शीघ्र धार्मात्मा बन जाते हैं और चिरस्थायी शांति पाते हैं। हे कुन्ती पुत्र! निडर हो कर यह घोषणा कर दो कि मेरे भक्त का कभी पतन नहीं होता।
Start your day with a nugget of timeless inspiring wisdom from the Holy Bhagavad Gita delivered straight to your email!
केवल उचित संकल्प कर लेने मात्र से भक्त कैसे सम्मानित माने जा सकते हैं? श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि यदि वे निरन्तर भगवान की अनन्य भक्ति में अटूट श्रद्धा रखते हैं तब उनका हृदय शुद्ध हो जाएगा और वे सहजता से संतों के गुण विकसित कर लेंगे। दिव्य गुण भगवान से प्रकट होते हैं। वे पूर्णतया न्यायी, सच्चे, करुणामय, प्रिय, दयावान इत्यादि हैं क्योंकि हम जीवात्माएँ उनके अणु अंश हैं इसलिए स्वाभाविक रूप से हम भी इन्हीं गुणों की ओर आकर्षित होते हैं लेकिन सद्गुणी बनने की प्रक्रिया एक जटिल रहस्य बनी रहती है। बचपन से हम यह सुनते रहते हैं कि हमें सदा सत्य बोलना चाहिए, दूसरों की सेवा करनी चाहिए और काम क्रोध इत्यादि से मुक्त रहना चाहिए किन्तु फिर भी हम इन शिक्षाओं को व्यावहारिक रूप से अपनाने में असमर्थ रहते हैं। इसका स्पष्ट कारण हमारे मन का अशुद्ध होना है। मन के शुद्धिकरण के बिना चरित्र के दोषों का उन्मूलन पूर्ण और स्थायी रूप से नहीं हो सकता। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने इस दिव्य गुण को विकसित करने के अटल सत्य को इस प्रकार प्रकट किया है
सत्य अहिंसा आदि मन! बिन हरिभजन न पाय।
जल ते घृत निकले नहीं, कोटिन करिय उपाय।।
(भक्ति शतक-35)
"चाहे कितना भी प्रयत्न क्यों न करें, जल से कपड़े पर पड़े तेल के धब्बे हटते नहीं। उसी प्रकार से सत्यता, अहिंसा और अन्य सद्गुण भक्ति में तल्लीन हुए बिना नहीं पाये जा सकते।" ये गुण तभी प्रकट होते हैं जब मन शुद्ध हो जाता है और मन की शुद्धि परम शुद्ध सच्चिदानंद भगवान में अनुरक्त हुए बिना नहीं हो सकती। आगे भगवान अर्जुन को निर्भीक होकर यह घोषणा करने को कहते हैं कि उनके भक्त का कभी पतन नहीं होता। वह यह नहीं कहते कि 'ज्ञानी का पतन नहीं होता और न ही वह यह कहते हैं कि कर्मी (कर्मकाण्ड का पालन करने वाला) का पतन नहीं होता, वे केवल अपने भक्तों को वचन देते हैं कि उनका कभी विनाश नहीं होता।' इस प्रकार वे पुनः वही दोहराते हैं जो उन्होंने इस अध्याय के बाइसवें श्लोक में कहा है कि वे उन पर आश्रित और उनकी अनन्य भक्ति में लीन भक्तों की रक्षा का दायित्व अपने ऊपर लेते हैं। यह भी एक पहेली प्रतीत होती है कि श्रीकृष्ण यह घोषणा स्वयं करने के स्थान पर अर्जुन को यह घोषणा करने के लिए क्यों कहते हैं? इसका कारण यह है कि विशेष परिस्थितियों में भगवान को कई बार अपना वचन भंग करना पड़ता है किन्तु वह यह नहीं चाहते कि उनका भक्त कभी विवश होकर अपना वचन भंग करे।
उदाहरणार्थ श्रीकृष्ण ने यह संकल्प लिया था कि वे महाभारत के युद्ध के दौरान शस्त्र नहीं उठाएँगे किन्तु जब भीष्म पितामह जिन्हें उनका परम भक्त माना जाता है, ने यह संकल्प लिया कि वह अगले दिन सूर्य अस्त होने तक अर्जुन का वध करेंगे या फिर श्रीकृष्ण को उसकी रक्षा हेतु शस्त्र उठाने के लिए विवश कर देंगे। श्रीकृष्ण ने भीष्म की प्रतिज्ञा की रक्षा हेतु अपने वचन को भंग कर दिया। इसलिए अपने कथन की शक्ति की पुनः पुष्टि के लिए श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं-"अर्जुन तुम घोषणा करो कि मेरे भक्त का कभी विनाश नहीं होता और मैं तुम्हें आश्वासन देता हूँ कि तुम्हारे वचन का पालन होगा।"